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रुश॑द्वत्सा॒ रुश॑ती श्वे॒त्यागा॒दारै॑गु कृ॒ष्णा सद॑नान्यस्याः। स॒मा॒नब॑न्धू अ॒मृते॑ अनू॒ची द्यावा॒ वर्णं॑ चरत आमिना॒ने ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ruśadvatsā ruśatī śvetyāgād āraig u kṛṣṇā sadanāny asyāḥ | samānabandhū amṛte anūcī dyāvā varṇaṁ carata āmināne ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रुश॑त्ऽवत्सा। रुश॑ती। श्वे॒त्या। आ। अ॒गा॒त्। अरै॑क्। ऊँ॒ इति॑। कृ॒ष्णा। सद॑नानि। अ॒स्याः॒। स॒मा॒नब॑न्धू॒ इति॑ स॒मा॒नऽब॑न्धू। अ॒मृते॒ इति॑। अ॒नू॒ची इति॑। द्यावा॑। वर्ण॑म्। च॒र॒तः॒। आ॒मि॒ना॒ने इत्या॑ऽमि॒ना॒ने ॥ १.११३.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:113» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब रात्रि और प्रभातवेला के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो यह (रुषद्वत्सा) प्रकाशित सूर्यरूप बछड़े की कामना करनेहारी वा (रुशती) लाल लालसी (श्वेत्या) शुक्लवर्णयुक्त अर्थात् गुलाबी रङ्ग की प्रभात वेला (आ, अगात्) प्राप्त होती है (अस्याः, उ) इस अद्भुत उषा के (सदनानि) स्थानों को प्राप्त हुई (कृष्णा) काले वर्णवाली रात (आरैक्) अच्छे प्रकार अलग-अलग वर्त्तती है, वे दोनों (अमृते) प्रवाहरूप से नित्य (आमिनाने) परस्पर एक दूसरे को फेंकती हुई सी (अनूची) वर्त्तमान (द्यावा) अपने-अपने प्रकाश से प्रकाशमान (समानबन्धू) दो सहोदर वा दो मित्रों के तुल्य (वर्णम्) अपने-अपने रूप को (चरतः) प्राप्त होती हैं, उन दोनों का युक्ति से सेवन किया करो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस स्थान में रात्री वसती है, उसी स्थान में कालान्तर में उषा भी वसती है। इन दोनों से उत्पन्न हुआ सूर्य्य जानों दोनों माताओं से उत्पन्न हुए लड़के के समान है और ये दोनों सदा बन्धु के समान जाने-आनेवाली उषा और रात्रि हैं, ऐसा तुम लोग जानो ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोषोरात्रिव्यवहारमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या येयं रुशद्वत्सा वा रुशतीव श्वेत्योषा आगादस्या उ सदनानि प्राप्ता कृष्णा रात्र्यारैक् ते द्वे अमृते आमिनाने अनूची द्यावा समानबन्धू इव वर्णं चरतस्ते यूयं युक्त्या सेवध्वम् ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रुशद्वत्सा) रुशज्ज्वलितः सूर्य्यो वत्सो यस्याः सा (रुशती) रक्तवर्णयुक्ता (श्वेत्या) शुभ्रस्वरूपा (आ) (अगात्) समन्तात् प्राप्नोति (अरैक्) अतिरिणक्ति (उ) अद्भुते (कृष्णा) कृष्णवर्णा रात्री (सदनानि) स्थानानि (अस्याः) उषसः (समानबन्धू) यथा सहवर्त्तमानौ मित्रौ भ्रातरौ वा (अमृते) प्रवाहरूपेण विनाशरहिते (अनूची) अन्योऽन्यवर्त्तमाने (द्यावा) द्यावौ स्वस्वप्रकाशेन प्रकाशमानौ (वर्णम्) स्वस्वरूपम् (चरतः) प्राप्नुतः (आमिनाने) परस्परं प्रक्षिपन्तौ पदार्थाविव ॥ २ ॥ ।इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याख्यातवान्−रुशद्वत्सा सूर्यवत्सा रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। सूर्यमस्या वत्समाह साहचर्य्याद्रसहरणाद्वा रुशती श्वेत्यागात्। श्वेत्याश्वेततेररिचत् कृष्णा सदनान्यस्याः कृष्णवर्णा रात्रिः कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। अथैने संस्तौति समानबन्धू समानबन्धने अमृते अमरणधर्माणावनूची अनूच्यावितीतरेतरमभिप्रेत्य द्यावा वर्णं चरतस्त एव द्यावौ द्योतनादपि वा द्यावाचरतस्तया सह चरत इति स्यादामिनाने आमिन्वाने अन्योन्यस्याध्यात्मं कुर्वाणे। निरु० २। २० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यस्मिन् स्थाने रात्री वसति तस्मिन्नेव स्थाने कालान्तरे उषा च वसति। आभ्यामुत्पन्नः सूर्य्यो द्वैमातुर इव वर्त्तते इमे सदा बन्धूवद्गतानुगामिन्यौ रात्र्युषसौ वर्त्तेते एवं यूयं वित्त ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या स्थानी रात्र असते कालांतराने त्याच स्थानी उषाही येते. या दोन्हींपासून उत्पन्न झालेला सूर्य जणू दोन्ही मातांपासून उत्पन्न झालेल्या पुत्राप्रमाणे आहे. उषा व रात्री या दोघी दोन बंधूप्रमाणे आहेत हे तुम्ही जाणा. ॥ २ ॥